तम का घोर अन्धार भेद कर दिव्य ज्योति दिखलाता है
जब भीतर की उत्कंठायें स्वयं तुष्ट हो जाती हैं
अन्तर में प्रज्ञा की आभा हुष्ट-पुष्ट हो जाती है
अमृत घट जब छलक उठे
बिन तेल जले जब बाती
तब कविता उपकृत हो जाती
अमिट-अक्षय-अमृत हो जाती
देश काल में गूंज उठे जब कवि की वाणी कल्याणी रे
स्वाभिमान का शोणित जब भर देता आँख में पाणी रे
जीवन के झंझावातों पर विजय हेतु संघर्ष करे
शोषित व पीड़ित जन गण का स्नेहसिक्त स्पर्श करे
आँख किसी की रोते-रोते
जब सहसा मुस्का जाती
तब कविता अधिकृत हो जाती
साहित्य में स्वीकृत हो जाती
क्षुद्र लालसा की लपटें जब दावानल बन जाती हैं
धर्म कर्म और मर्म की बातें धरी पड़ी रह जाती हैं
रिश्ते-नाते,प्यार-मोहब्बत सभी ताक पर रहते हैं
स्वेद-रक्त की जगह रगों में लालच के कण बहते हैं
त्याग तिरोहित हो जाता
षड्यन्त्र सृजे दिन राती
तब कविता विकृत हो जाती
सम्वेदना जब मृत हो जाती

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