Sunday, May 16, 2010
अठै रा मिनख घणैइ मजै म्है रैवै है
लोग कहते हैं कि शहरों की अपेक्षा गाँव के लोग ज़्यादा सुखी और
स्वस्थ हैं। हो सकता है ये सच हो लेकिन गाँव के लोग भी कम दुखी
नहीं हैं । अभाव अभाव और अभाव के साथ साथ असुविधा और
अशिक्षा के चलते गाँव में गरीब का शोषण होता है और इतना
होता है कि सुनने वाले शहरी की रूह कांप उठे..............इसी बात
को सरल राजस्थानी भाषा में कहने की कोशिश की है मैंने इस
तुकबन्दी में ........
_________राजस्थानी कविता
ऐ गाम है सा ...
ऐ गाम है सा
थे तो सुणयो इ होसी ...
अठै अन्न-धन्न री गंगा बैवै है
अठै रा मिनख घणैइ मजै म्है रैवै है
बीजळी ?
ना सा, जगण आळी बीजळी रो अठै कांइं काम ?
अठै तो बाळण आळी बीजळियां पड़ै है
कदै काळ री,
कदै गड़ां री,
कदै तावड़ै री
जिकी टैमो-टैम चांदणो कर देवै है
ऐ गाम है सा
अठै रा मिनख घणैइ मजै म्है रैवे है ...
दुकान ?
ना सा, बा दुकान कोनी
बा तो मसाण है
जिकी मिनख तो मिनख,
बांरै घर नै भी खावै है
बठै बैठ्यो है एक डाकी,
जिको एक रुपियो दे' र
दस माथै दसकत करावै है
पैली तो बापड़ा लोग,
आपरी जागा,
टूमां अर बळद
अढाणै राख' र करजो लेवै है
पछै दादै रै करज रो बियाज
पोतो तक देवै है
करजो तोई चढय़ो रैवे है
ऐ गाम है सा
अठै रा मिनख घणैइ मजै म्है रैवै है ...
डागदर?
डागदर रो कांई काम है सा ?
बिंरौ कांई अचार घालणो है ?
अठै
पैली बात तो कोई बीमार पड़ै कोनी
अर पड़ इ जावै तो फेर बचै कोनी
जणां डागदर री
अणूती
भीड़ कर' र
कांई लेवणो ?
ताव चढ़ो के माथो दुःखो
टी.बी. होवो चाये माता निकळो
अठै रा लोग तो
घासो घिस-घिस अर देवै है
अनै धूप रामजी रो खेवै है
ऐ गाम है सा
अठै रा मिनख घणैइ मजै म्है रैवै है
रामलीला?
आ थानै रामलीला दीठै ?
आ तो
पेटलीला है सा
जिकै म्है
घर रा सगळा टाबर-टिंगर
लड़ै है,
कुटीजै है ...
पेट तो किंरो इ कोनी भरै,
पण ...
मूंडो तो ऐंठो कर इ लेवै है
जणा इ तो दुनिया कैवै है
ऐ गाम है सा
अठै रा मिनख घणै इ मजै म्है रैवै है
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Tuesday, February 23, 2010
जब भीतर की उत्कंठायें स्वयं तुष्ट हो जाती हैं
शब्द-शब्द जब मानवता के हितचिन्तन में जुट जाता है
तम का घोर अन्धार भेद कर दिव्य ज्योति दिखलाता है
जब भीतर की उत्कंठायें स्वयं तुष्ट हो जाती हैं
अन्तर में प्रज्ञा की आभा हुष्ट-पुष्ट हो जाती है
अमृत घट जब छलक उठे
बिन तेल जले जब बाती
तब कविता उपकृत हो जाती
अमिट-अक्षय-अमृत हो जाती
देश काल में गूंज उठे जब कवि की वाणी कल्याणी रे
स्वाभिमान का शोणित जब भर देता आँख में पाणी रे
जीवन के झंझावातों पर विजय हेतु संघर्ष करे
शोषित व पीड़ित जन गण का स्नेहसिक्त स्पर्श करे
आँख किसी की रोते-रोते
जब सहसा मुस्का जाती
तब कविता अधिकृत हो जाती
साहित्य में स्वीकृत हो जाती
क्षुद्र लालसा की लपटें जब दावानल बन जाती हैं
धर्म कर्म और मर्म की बातें धरी पड़ी रह जाती हैं
रिश्ते-नाते,प्यार-मोहब्बत सभी ताक पर रहते हैं
स्वेद-रक्त की जगह रगों में लालच के कण बहते हैं
त्याग तिरोहित हो जाता
षड्यन्त्र सृजे दिन राती
तब कविता विकृत हो जाती
सम्वेदना जब मृत हो जाती
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तम का घोर अन्धार भेद कर दिव्य ज्योति दिखलाता है
जब भीतर की उत्कंठायें स्वयं तुष्ट हो जाती हैं
अन्तर में प्रज्ञा की आभा हुष्ट-पुष्ट हो जाती है
अमृत घट जब छलक उठे
बिन तेल जले जब बाती
तब कविता उपकृत हो जाती
अमिट-अक्षय-अमृत हो जाती
देश काल में गूंज उठे जब कवि की वाणी कल्याणी रे
स्वाभिमान का शोणित जब भर देता आँख में पाणी रे
जीवन के झंझावातों पर विजय हेतु संघर्ष करे
शोषित व पीड़ित जन गण का स्नेहसिक्त स्पर्श करे
आँख किसी की रोते-रोते
जब सहसा मुस्का जाती
तब कविता अधिकृत हो जाती
साहित्य में स्वीकृत हो जाती
क्षुद्र लालसा की लपटें जब दावानल बन जाती हैं
धर्म कर्म और मर्म की बातें धरी पड़ी रह जाती हैं
रिश्ते-नाते,प्यार-मोहब्बत सभी ताक पर रहते हैं
स्वेद-रक्त की जगह रगों में लालच के कण बहते हैं
त्याग तिरोहित हो जाता
षड्यन्त्र सृजे दिन राती
तब कविता विकृत हो जाती
सम्वेदना जब मृत हो जाती
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Monday, February 22, 2010
Sunday, February 21, 2010
दीवारों से झाँक रहे हैं
Wednesday, February 17, 2010
Thursday, February 4, 2010
Monday, February 1, 2010
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